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भारतीय धर्म और संस्कृति में कला का अन्तःसम्बन्ध
Authors: डॉ0 इन्दु जोशी , जितेन्द्र कुमार चौधरी
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भारतीय इतिहास कलात्मक, सौन्दर्यता, दार्शनिकता, आध्यात्मिकता, धर्मपरकता, पुरातनता व संस्कृति के मौलिक सूत्रों में घिरी एक मुक्ता-माला के समान है। इनमें कला का विकसित व आदर्श स्वरूप है और यह कला, किसी भी समय व स्थान पर, जब किसी सभ्यता का अभ्युदय एवं विकास हुआ है तो सभ्यता के मूल तत्वों को सुदृढ़ किया है। जिसमें धर्म, संस्कृति और कला का आपस में परस्पर सम्बन्ध स्थापित करता है। कला, मनुष्य को संवेदनशील व विवेकशील, संस्कृति से सभ्य, धर्म से आस्थावान बनाती है। यह विभिन्न स्वरूप मनुष्य को ऊर्जावान और जुझारूपन बनाते है। जिससे समस्याओं का मुकाबला करने का सहज स्वाभिमान को जागृत करते है। जिससे विश्व में मानवता का प्रसार हो।
ये पूर्णरूप से स्पष्ट है कि कला ने ही मानव का संस्कार किया है। उसे पशु वृत्ति से पृथक किया तथा उसे सौन्दर्य बोध दिया। जिसके कारण मनुष्य ने इस सुन्दर जगत का निर्माण किया। मनुष्य जो कुछ करता है, वह कला ही उपासना के अज्ञान उत्पादन है। जो परम्परा से विकसित होते चले आये है। कला के विभिन्न रूप और प्रकार, जहाँ भी दृष्टिपात किया तो हमें देखने को मिलता है1 और यह मनोविनोद या भोग-विलास न होकर कलात्मक विस्तार, ऐतिहासिक परम्परा का आदर्श और सैद्धान्तिक सृजन की प्रक्रिया का प्राधान्य माना गया। जो अभिव्यक्ति के माध्यम से जन-जन में संचारित और संसार में प्रकाशित होता है। जो मानव के पथप्रदर्शक के साथ ही सभ्य बनाने की निरन्तर प्रक्रिया में रहती है। इस निरन्तरता में मानव स्वयं और समूह में ध्यान, चिन्तन-मनन, सृजन आदि के द्वारा अपने विचारों को प्रकट करके आनन्दिक सुख प्राप्त करता है। इस सुख प्राप्ती में कला प्रमुख साधन सिद्ध होता है।